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________________ हनुमानकी उत्पत्ति और वरुणका साधन । ११५ अधिकार नहीं है। देख क्या रही है ? इसको जलदी यहाँसे निकाल दे।" __ अंजनाके वचन सुन, प्रहसितने हाथ जोड़कर कहा:"हे स्वामिनी ! चिरकाल के बाद उत्कंठित होकर, आये हुए पवनंजयके समागमकी आपको बधाई है। कामदेवका जैसे वसंत मित्र है, वैसे ही मैं पवनंजयका मित्र प्रहसित हूँ। मैं आया हूँ । समझिए कि मेरे पीछे ही पवनंजय आनेवाले हैं।" __ प्रहसितकी बात सुन अंजना बोली:-" हे प्रहसित ! विधिने पहिले ही मेरा बहुत हास्य कर रक्खा है। फिर तुम भी मुझपर क्यों हँसते हो ? यह मस्खरी करनेका समय नहीं है । मगर इसमें किसीका क्या दोष है ? मेरे ही कर्मोंका दोष है । यदि आज भाग्य ही सीधा होता तो मुझे ऐसा कुलवान पति क्यों छोड़ देता ? क्यों आज बाईस बरस बीत जानेपर भी पति-विरहसे मैं मर न जाती ?" उसके इसतरहके वचन सुनकर, अंजनाके दुःखका भार जिसके ऊपर है ऐसा, पवनंजय एकदम अपने महलमें चला गया और आँखोंमें पानीभर गद्गद हृदय हो बोला: " हे प्रिये ! मैं मुर्ख होकर भी अपने आपको महाज्ञानी समझता था । इसी लिए तेरे समान निर्दोष स्त्रीको सदोषा समझ मैंने व्याह करते ही छोड़ दिया था । मेरे ही दोषसे
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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