SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हनुमानकी उत्पत्ति और वरुणका साधन । १०५ प्रहसित ने कहा :- " मित्र स्थिर होओ । रातको हम अनुपलक्षित होकर वेष बदलकर - वहाँ जायँगे और उस कान्ताको देखेंगे ।" तदनुसार पवनंजय और प्रहसित दोनों रातको अंजनासुंदरी के महल में गये । राजस्पशन - गुप्तचर - की भाँति छुपकर, पवनंजय अंजनाको भली प्रकारसे देखने लगानिरखने लगा । उस समय वसंततिलका नामकी सखीने अंजनासुंदरीसे कहा :- " सखी ! तेरा अहो भाग्य है कि, तुझको पवनंजयके समान वर मिला है ।" यह सुनकर 'मिश्रका ' नामा दूसरी सखी बोली:" रे सखी ! विद्युत्प्रभा के समान वरको छोड़कर दूसरे -वरकी क्या प्रशंसा करने लग रही है ?" वसन्ततिलकाने कहा: - ' हे मुग्धा ! तू तो कुछ भी नहीं जानती । विद्युत्प्रभा के समान अल्प आयुवाला पुरुष अपनी स्वामिनीके योग्य कैसे हो सकता है ? ' मिश्रका बोली :- " सखी ! तू तो बिलकुल मंद बुद्धि - मालूम होती है । अरी ! अमृत थोड़ा हो, तो भी वह श्रेष्ठ होता है और विष बहुतसा हो तो भी वह किसी कामका नहीं होता । " दोनों सखियोंका वार्तालाप सुनकर, पवनंजय सोचने
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy