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________________ ८८ जैन रामायण द्वितीय सर्ग। लेकर, सुभटोंसे घिरा हुआ, कोपसे प्रज्वलित अग्निकुमारके समान बना हुआ, नलकूबर वहाँ रहता था। । सोकर उठे हुए मनुष्य, जैसे ग्रीष्म ऋतुके-गरमीकी मोसिमके-मध्यान्हकालीन-दुपहरके-सूरजको नहीं देख सकते हैं, वैसे ही कुंभकरणादि भी वहाँ जाकर उस नगरको न देख सके । उनकी आँखें चुंधिया गई । उनका उत्साह भंग हो गया और वे यह सोचकर वापिस रावणके पास लौट गये कि यह-"दुर्लध्यपुर वास्तवमें ही दुर्लध्य ही है। . रावण ये समाचार पाकर स्वयं दुर्लध्यपुरको गया। उस तरह के कोटसे घिरा हुआ किला देख, रावण विचारमें पड़ा । वह बहुत देरतक उस नगरको लेनेकी तरकीबें सोचता रहा; अपने बंधुके साथ नगर कैसे लिया जाय इस बातकी सलाह करता रहा । __ नलकूबरकी स्त्री 'उपरंभा' रावण पर आसक्त हो गई । उसने अपनी एक दासीको भेजा। रावण सलाह कर रहा था, उस समय दासीने जाकर कहा:-"मूर्तिमती जय लक्ष्मीके समान उपरंभा तुम्हारे साथ क्रोडा करनेकी इच्छा रखती है । तुम्हारे गुणोंसे मुग्ध होकर, उसका मन तो तुम्हारे पास आगया है। मात्र शरीर वहाँ रहा है। हे मानद ! इस नगरकी रक्षिका आशाली नामकी विद्याको भी वह अपने शरीरके समान ही तुम्हारे आधीन कर
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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