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________________ (५३४) जी, तपसी मारग सार ॥ ६ ॥ १०॥ नर नारि बदु तिहां मिली जी,साधू वांदण कोड । केशपाला केशपा लरव्यां जी, वंदे होडाहोड ॥७॥६० ॥ खंधक कुमर पण आवीयो जी,बेगे परखदा मांय ॥ मुनिवर दीधी देशना जी,सघलाने चितलाय॥॥॥आगारनेत्रण गारना जी, धर्म तणा दोय नंद ॥ समकित सहित व्रत आदरो जी, राखो मुगति उमेद ।। ए॥०॥ मान अणी जलबिंवो जी,पाळूपीपल पान॥ अथिर तन धन ए आन जी,तजो कपट ने मान ॥१०॥१०॥ विहडे सुतने बांधवो जी,विहडे सऊन पर्म ॥ कुटुंब पण विहडे सदु जी,नवि विहडे जिनधर्म ॥ ११ ॥ ॥६॥ आव्यो बे जीव एकिलो जी, वली एकिलो जी जाय॥बांध्यां कर्म जीवें जिस्यां जी,तिस्यां उदय दुवे प्राय ॥ १२ ॥ ६० ॥ पुण्यजोगें नरनव लह्यो जी, सदगुरुनो संयोग ॥ हवे टालो राखो मती जी,तजो जहेर जिम जोग ॥ १३ ॥ १० ॥ चारु गति संसा रना जी, लग रहि खांचाजी ताणाचल वस्तु सघली कही जी, निश्चल ने निरवाण ॥ १४ ॥ १० ॥ उदा सुखने कारणे जी,यो कंझी रांग ॥ नवनव मांहे काढिया जी,नटुवे वाला सांग ॥१५॥१०॥अथिर ए सुख संसारनां जी, कांई अलुको जाल ॥ वचन सुणी सदगुरु तणां जी, चेतो सुरत संजाल ॥१६॥ १० ॥ पं चमाहाव्रत आदरोजी, श्रावकनां व्रत बार ॥ कष्ठ प ज्या गाढा रहोजी, जिम पामो नव पार ॥ १७ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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