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________________ (५३०) म संगें रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतो जी॥ २ ॥ ने ॥धर्म अधर्म अाकाश अचेतना, ते विजा ती अग्राह्यो जी॥ पुजल ग्रहवे रे कर्मकलंकता, वा घे बाधक बाह्यो जी॥३॥ ने॥रागी संगें रे रागदशा वधे, थाये तिणे संसारो जी॥ नोरागीथी रे रागर्नु जोडवू, लहीयें नवनो पारो जी ॥ ४ ॥ ने ॥ अप्र शस्तता रे टालि प्रशस्तता,करतां आश्रव नासे जी॥ संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमनाव प्रकासे जी॥५॥ने । नेमिनु ध्याने रे एकत्वता, निज तत्त्वें एकतानो जी॥ गुक्तध्याने रे साधि सुसिहता, सहियें मुक्ति निदानो जी ॥ ६ ॥ ने० ॥ अगम अ रूपी रे अलख अगोचरू, परमातम परमीशो जी । देवचं जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशो जी॥७ ॥अथ त्रयोविंश श्रीपार्श्वजिनं स्तवन।कडखानी देशी। ॥सहज गुण आगरो, स्वामी सुख सागरो, ज्ञान वैरागरें प्रनु सवायो ॥ शुद्धता एकता, तीक्ष्णता जावथी, मोह रिपु जीति जय पडह वायो॥ १ ॥ ॥ स ॥ वस्तु निज नाव,अविनास निकलंकता,परि गति वृत्तिता करि अनेदें ॥ जावतादात्म्यता, शक्ति नहलासथी, संतति योगने तुं उल्लेदे ॥ २ ॥ स० ॥ दोष गुण वस्तुनी, लखिय यथार्थता, लहि उदासी नता अपर जावें ॥ ध्वंसितङन्यता, नाव कर्त्ताप, परम प्रनु तूं रम्यो निज स्वनावें ॥३॥ स० ॥ गुन अशुन जाव, अविनास तहकीकता, गुन अशुन
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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