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________________ (५१७) ए पर्याय जी ॥ तास वर्गथी अनंत गुणुं प्रनु,केवल झान कहाय जी ॥३॥शी० ॥ केवल दर्शन एम अ नंतो,ग्रहे सामान्य स्वनाव जी॥ स्वपर अनंतथीच रण अनंतो, स्वरमण संवर नाव जी ॥४॥शी॥ व्यदेव ने काल नाव गुण,राजनीति ए चार जी॥ त्रास विना जड चेतन प्रनुनी,कोइ न लोपे कार जी ॥ ५॥ शी०॥ गुदाशय थिर प्रनु उपयोगें, जे समरे तुज नाम जी॥ अव्याबाध अनंतो पामे, परम अमृ त सुख धाम जी ॥ ६ ॥ शी० ॥ आणा ईश्वरता नि नयता,निर्वाडकता रूप जी ॥ नाव स्वाधीन ते अव्य य रीतें,इम अनंत गुण नूप जी॥ ७ ॥शी॥ अव्या बाध सुख निर्मल तेतो, करण झाने न जणाय जी॥ तेहज एहनो जाणंग जोक्ता, जे तुम सम गुण राय जी ॥ ७ ॥ शी ॥ एम अनंत दानादिक निजगुण, वचनातीत पंकुर जी ॥ वासन नासन नावें उर्तन, प्रापती तो अति दूर जी ॥ए॥ शी॥ सकल प्रत्यद पणे त्रिजुवन गुरु, जाणुं तुज गुण ग्राम जी ॥ बीजुं कांश न मागुं स्वामि,एहिजडे मुफ काम जी॥१०॥शी एम अनंत प्रनुता सर्दहतां,अर्चे जे प्रनु रूप जी॥देव चंड पनुता ते पामे,परमानंद स्वरूप जी॥११॥शी॥ ॥ अथ एकादश श्रीश्रेयांसजिनस्तवनं ॥ ॥ प्राणी वाणी जिनतणी॥ ए देशी॥ ॥ श्रीश्रेयांस प्रनु तणो, अति अनुत सहजानंद रे॥ गण एकविध त्रिक परणम्यो, एम गुण अनंत
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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