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________________ ( ए ) उदक मुझने नवि रुचतुं,तुज मुख जोवाने तृपती जी ॥ तु० ॥ ॥ तुं वेठो शिर उत्र धरावे, सेवे सुर नर नारी जी ॥ तो जननीने केम संजारे, जाणी जाणी प्रीति तहारी जी॥ तु० ॥३॥ तुं कहेनो ने ढुं वली कहेनी, नथी इहां कोई कहेनुं जी॥ ममता मोह धरे जे मनमां, मूर्ख पणुं सहि तेहy जी ॥ तु० ॥४॥ अनित नावनायें चढ्या मरु देव्या, बेगां गयवर खंधो जी ॥ अंतगड केवजी थई गया मुक्ते, कानने मन आणंदो जी ॥ तु० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ शीखामणनी सद्याय ॥ ॥ श्रीगुरु चरण पसानने, कहिगुंशीखामण सार॥ मन समजावो रे आपणुं, जिम पामो नव पार ॥१॥ कहे नारूडं तें झुं कां,प्रातमने हितकार ।। इह नव परनव सुख घणां, लहिये जय जय कार ॥ कहे॥॥ लाख चोराशी योनि तुं नमि, पाम्यो नर अवतार ॥ देव गुरु धर्म न उलव्या, न जप्यो मन नवकार ॥ कहे ॥३॥ नव मसवाडा नदर धस्यो, पाली पोढो रे कीध॥माय ताय सेवा कोधी नहीं, न्यायें मन नवि दीध ॥ कहे० ॥ ४ ॥ चाडी कीधी रे चोतरें, दंमाव्यां जला लोक ॥ साधु सदुने संतापिया, आल चढाव्यां तें फोक ॥ कहे० ॥ ५॥लो लाग्यो रे प्राणीयो, न गणे रात ने दीस ॥ हाहो करतां रे एकलो, जई हाथ घशीश ॥ कहे ॥ ६ ॥ कपट बल नेद तें कस्यां, जांख्या परना रे मर्म ॥ साते व्यसनने सेवियां, नवि
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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