SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४१) ॥ १३॥ मोहदशा धरी नावना रे, चित्त लहे तत्त्व विचार ॥ म० ॥ वीतरागता आदर रे, प्राणनाथ नि रधार । म ॥१४॥ सेवक पण ते आदरे रे, तो रहे सेवक माम ॥ म० ॥ आशयसाथें चालीयें रे, एहीज रूडं काम ॥म ॥ १५॥ विविध योग धरी आदस्यो रे, नेम नाथ जरतार ॥ म० ॥ धारण पोष ण तारणोरे, नव रस मुगता हार ॥ म० ॥ १६ ॥ कारणरूपी प्रनु नज्यो रे, गण्यं न काज अकाज ॥ ॥ म ॥ कृपा करी मुफ दीजीयें रे, आनंदघन पद राज ॥ म ॥१७॥ इति हाविंशतिजिन स्तवनं ॥ ॥ अथ समकेतनुं स्तवन प्रारंन ॥ ॥ समकित हार गंनारे पेसतां जी, पाप पमल गयां दूर रे ॥ माता मरु देवीनो लाडिलो जी, दीवां आनंद पूर रे ॥ सम॥ १ ॥ आयु वर्जित सात क मनी जी, सागर कोडा कोडी हीन रे ॥ स्थिति प्रथ म करणे करी जी, वीर्य अपूर्व मोघर लीन रे ॥स म० ॥ ॥ मुंगल नांगी आदि कषायनी जी, मिय्या मोहनी सांकल साथ रे॥ बार उघाड्यां स्वामी संवेग नां जी, दीपा श्री अनुनव नवियण नाथ रे ॥स म० ॥३॥ तोरण बांध्यां जीवदया तणां जी, सा थीयो पूस्यो श्रदा रूप रे ॥ धूप घटा प्रनु गुण अनुमो दना जी, दीप मंगल आठ अनूप रे ॥ सम० ॥४॥ संवर पाणीयें अंग पखालियां जी, केशर चंदन उत्तम ध्यान रे ॥ बातमरुचि मृग मद महमहे जी, पंचा ३१
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy