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________________ ( ४७८ ) तोशुं कीजें शकटें ॥ मुनि० ॥ ६ ॥ एम अनेक वा दिमत विज्रम, संकट पडियो न लहे ॥ चित्त समा ध ते माटे पूनुं, तुम विण तत कोइ न कहे ॥ मुनि ० ॥ ७ ॥ वतुं जगगुरु इणि परें जाखे, पक्षपात सब मी | राग द्वेष मोह पख वर्जित, श्रातमधुं रढ मं मी ॥ मुनि० ॥ ॥ श्रातम ध्यान करे जो कोन, सो फिर इसमें नावे | वाग जाल बीजुं सहु जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥ मुनि० ॥ ॥ जिणें विवेक धरी ए पख ग्रहीयें, ते तत ज्ञानी कहियें || श्रीमुनि सु व्रत कृपा करो तो, आनंदघनपद लहियें ॥ मुनि ० ॥ १० ॥ अथ श्रीनमिजिन स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ राग श्राशावरी ॥ धनधन संप्रति साचो ॥ ॥ राजा ॥ ए देगी ॥ ॥ पटदरिसण जिन अंग नलीजें, न्यास षडंग जो साधे रे || नमि जिनवरना चरण उपासक, पट दरि सण राधे रे ॥ पट० ॥ १ ॥ ए यांकणी ॥ जिन सुर पादप पाय वखाणुं, सांख्य जोग दोय नेर्दे रे ॥ यातम सत्ता विवरण करतां, लहो डुग अंग अखे दें रे ॥ पट० ॥ २ ॥ नेद खनेद सौगत मीमांसक, जिनवर दोय कर जारी रे || लोकालोक अवलंबन नजियें, गुरुगमथी अवधारी रे || पट० ॥ ३ ॥ लो कायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचारी जो कीजें रे ॥ तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पी जें रे ॥ षट ॥ ४ ॥ जैन जिनेसर वर उत्तम अंग,
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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