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________________ (४६०) वृद्धि वाधि सर्व सिरे ॥ धन ॥ ४ ॥ राग धन्या श्री ॥ षन अजित संनव अभिनंदन, सुमति पद्म सुपास जी ॥ चंदप्रन सुविधि शीतल श्रेयांस, वासुपू ज्य विमल जिन खास जी ॥ अनंत धर्म शांति कुंथु अर, मनि मुनिसुव्रत नमी नेम जी ॥ पार्श्व वीर चोवीशे प्रणमुं, परम उदय लही प्रेम जी॥ १ ॥ ॥ इति चतुर्विंशति दमक नर्नित श्रीचतुर्विशति व। तराग स्तवन ॥ ढाल सत्यावंश ॥ गाथा चोशन ले ॥ ॥ अथ श्री आनंदघनरूत चोवीश जिनस्तुति ॥ ॥ तत्र प्रथम श्री पनजिनस्तवनं ॥ ॥राग मारू॥करम परीक्षाकरण कुमर चल्यो रे॥ए देशी ॥ पन जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे,र न चाहुं रे कंत ॥रीज्यो साहेब संग न परिहरूं रे, नांगें सादि अ नंत ॥ वनम् ॥ १॥ प्रीति सगाई रे जगमां सदु करे रे, प्रीत सगाई न कोय॥प्रीत सगाई रे निरुपाधिक क ही रे, सोपाधिक धन खोय ॥षन ॥२॥को कंत कारण काष्ठ नदण करे रे, मलगुं कंतने धाय ॥ ए मेलो नवि कहियें संनवे रे, मेलो ठाम न गाय ॥षन ॥३॥ को पति रंजन अति घणुं तप करे रे, पति रंजन तन ताप ॥ ए पति रंजन में नवि चित्त धरघु रे, रंज न धातु मिलाप ॥ षन ॥ ४ ॥ कोइ कहे लीला रे अलख जलख तणी रे, लख पूरे मन ग्रास ॥ दोष रहितने लीला नवि घटे रे, लीला दोष विला स ॥ ऋषन ॥ ५ ॥ चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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