________________
(४४५) कीरत ए गाइ॥ कीरत ॥ अब० ॥४॥इति ॥
॥त्रीजी जीवशिखामणनी लावणी॥ ॥ कब दे जिनवर देव, जगत गुरु ग्यानी ॥ जग०॥कोआप समो नहीं न, जो अंतरध्यानी॥ ए बांकणी ॥ अब विषम वन संसार, जगतमें नट क्यो ॥ जग ॥ मुके अनमतने ले जाय, नरकमें प टक्यो । अब लहुँ दरिसन जिनवरका, दिन कब नगे ॥ ॥ मुफ मनकी वंबित पास, अधिक सब पूगे ॥अब जिनदरिसन बिन नयन, फरे मुजपानी॥ जरे ॥ कोइ० ॥ ॥ थारे कुगुरुको उपदेश, हि यामें नायो ॥हिया ॥ पण सरस नेद समकितको, जीव नंही पायो ॥ अब जैनधर्म निज माल, मूरख मत खोवे ।। मूरख ॥ ए सुमति सुरगको पंथ, अ मर गत होवे ॥ यब उलन जिन नक्तिकी, लही नि ज टानी ॥ लही० ॥ को० ॥ ॥ अब सुर नर गा वे गीत, अजब जड लागी ॥ अजब० ॥ जिहां ना चत नृत्य अनेक, अलसकू त्यागी॥अब मोहत म न नरपतिका, गगनधुनि गरजे ॥ गग० ॥ ए जिनवर महिमा अनंत, ध्यान दिल धरजे ॥ एसी अधिक ब बी जिनजीकी, मेरे मन मानी ॥मेरे॥कोई॥३॥ अब जिनचरणोसें रंग, अधिक दिल लागो ॥ अ०॥ में पेहेयो जिन गुण अजब, सुरंगी वाघो॥या सफ ल घडी समकितकी, हाथ अब आइ॥ हाथ ॥ में गगन गमनकी पारख, अमूलक पाइ॥ अब बोलत यु