SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३०) र्म करो जीव तिहां लगें, होइ साहस धीर ॥ न० ॥ ॥ ६६ ॥ प्रारज देश लह्यो हवे, लाधो गुरु संजो ग ॥ अंगथक आलस तजो, करो सुकत संजोग ॥ ॥ उ० ॥ ६७ ॥ श्रीने मिराज ती परें, चेतो चित्त मांहि ॥ स्वारथनो सदु को सगो, कोइ किरो नांहि ॥ ॥ उ० ॥ ६८ ॥ जोग संजोग जी सहु, थया जे ख गार || धन धन तसु माता पिता, धन धन अव तार ॥ ज० ॥ ६९ ॥ सुरतरु सुरमणि सारिखो, से वो श्रीजिनधर्म || जिपथी सुख संपति वधे, कीजें तेहज कर्म ॥ उ० ॥ ७० ॥ तंदूलि व्याजी में बे, एहनो अधिकार ॥ तिथी उद्धरीने कह्यो, नही जू व लगार ं ॥ उ० ॥ ७१ ॥ कलश || एह जैनधर्मवि चार सांगली, लहियें संजम जार ए ॥ वली सिंहनी परें सदा पाले, नियम निरतीचार ए ॥ संसारनां सु ख सकल जोगवी, ते लहे नव पार ए ॥ श्रीरत्नहर्षसु शिष्यरंगें, इम कहे श्रीसार ए ॥ ७२ ॥ इति नर्नवेली जीवनी उत्पत्तिनुं स्तवन संपूर्ण ॥ ॥ अथ कुमात्रीशी प्रारंभः ॥ || आदर जीव दमागुण यादर, म करिश राग ने द्वेष जी ॥ समतायें शिव सुख पामीजें, क्रोधें कुगति विशेष जी ॥ या० ॥ १ ॥ समता संजम सार सुणी जें, कल्पसूत्रनी साख जी ॥ क्रोध पूर्वकोडि चारित्र बाजे, नगवंत इणी परें जाख जी ॥ ० ॥ २ ॥ कुण कुण जीव तथा उपशमथी, सांजल तुं दृष्टांत जी ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy