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________________ ( ३०० ) आपणां, मन शुध आणंद पूर ॥ सह गुरु पास बेवली, जाय पाप सवि दूर ॥ १४६ ॥ बल वंत अनंता जे नरा के सुर सुनट जूजार ॥ क मे सुनट जुन एकले. सी मनाव्या हार ॥ १४७ ॥ कर्म सुनट विषम विकट ते वश कियो न जाय ॥ जे नर एहने वश करे, हुं वंदूं तस पाय ॥ १४८ ॥ म जाणीने कीजियें जिम यातन सुख धाय । प रजिव दुःख न दीजियें, इम बोल्या जिनराय ॥ १४९ ॥ दान शियल तप जावना, धर्मनां नर ए मूल || पर अवगुण बोलत सही, ए सब था धू ल ॥ १५० ॥ दान सुपात्रें दीजियें, तस पुण्यना नहि पार ॥ सुख संपति लहियें घणी, मणि मोती नंमार ॥ १५१ ॥ धन्नो सारशपती जुवो, वृत वोह राव्यं मुनि हाथ ॥ दानप्रनावें जीवडो, प्रथम हु वो आदिनाथ ॥ १५२ ॥ दान दियो धन सार थी, आनंद हर्ष पार || नेमनाथ जिनवर दुवा, यादव कुल सिणगार ॥ १५३ ॥ कलथी केरा रोट जा, दीधुं मुनिवर दान ॥ वासुपूज्य जव पाढले, जिनपद लघुं निदान ॥ १५४ ॥ मुनी नलो एक मारगें, वोहराव्यो तस आहार ॥ साथ मव्यो ते सारथी, ते विर जगदाधार ॥ १५५ ॥ सुलसा रेव ति रंगशुं दान दियो महावीर ॥ तीर्थकर पढ़ पाम शे, लदेशे ते जवतीर ॥ १५६ ॥ दानें जोगज पामि यें, शियजें होय सोनाग ॥ तप करि कर्मज टालिये,
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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