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________________ (३५०) त्यों अंतर्गत एहा ॥ खम शम दम नपशम शीत लता, करि जल लहेरी नेहा ॥से॥४॥ यातमराय राज्य अनिसंच्यो, पूजित त्रिजुवन गेहा ॥ तुम शिर बत्रकी बांह अमासिर, यो स्वरूप अनुपेहा॥से॥५॥ ॥अथ मनिजिन स्तवनं ॥ ॥ जीरे सफल दिवस थयो आजनो॥ए देशी॥ ॥ जीरे महिमा मनि जिणंदनी, मानी माहरे मन्न ॥ मोह महीपति जीनियो, वली तर पुत्र मद न ॥१॥ नित नमीएं नीरगता, नमतां होए जव बेह ॥ कुःख दोहग दूरें टले, एहमां नहिं संदेह ॥ जागो निःसंदेह ॥ नि ॥ २ ॥ जीरे मनि जिणं दनी साहेबी, देखीने रति प्रीति ॥ वचन कहे निज कंतने, पति प्रेमदानी रीति ॥6॥३॥ जीरे नाथ कहो ए कुण अडे, कहे ए जिनदेव ॥ जिन ते किम तुम वश नहिं, कहे एम सत्यमेव ॥ नि॥४॥ जीरे नहिं प्रताप इहां माहरो, तो वृथा पौरुष तुऊ ॥ हरव्यो मोह माहारो पिता, तो शो आशरो मुक ॥ ॥नि ॥५॥ जीरे ते सांनति रति प्रीति बे, त्रीजो काम सबाण ॥ मलीने मनि जिणंदनी, शिर धारी ने आण ॥ नि ॥ ६ ॥ जीरे तेमाटे तुम वीन,, वारो तेह अशेष ॥ यो सौनाग्य स्वरूपनें, सुखलब्धि विशेष ॥ नि ॥ ७ ॥ इति संपूर्ण ॥ ॥अथ स्तवनं राग प्रजातीमा ।। ॥ जागे सो जिननक्त कहावे, सोवे सो संसारी
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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