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________________ (३३२) प्रदक्षिण फेरा रे ॥ मु० ॥॥ पंच शब्द वाजां वज डावं, नृत्य करुं अधिकेरां रे ॥ रूपचंद गुण गावत हर्वित, दास निरंजन तेरा रे ॥मु० ॥३॥ इति ॥ ॥अथ प्रजाती रागमां स्तवन ॥ ॥प्रनु तोरी ठकुराकू, गढ तीन बिराजे ॥ रतन रचित मानुं देहकी, दूती मंमल बाजे ॥प्र० ॥ १ ॥ कलकत उहुं दिशि तेजमें, विच कंचन कोटा ॥ तेरे प्रबल प्रतापका, मानुं मंगल महोटा ॥प्र० ॥ २ ॥ अतिउज्ज्वल रूपें वन्या, तीजा गढ तेरा॥ तीन नुव नमें विस्तस्या, जस सुजस घणेरा ॥ प्र० ॥ ३ ॥ वा मानंद जिनंदकी, कहा कहुँ रे वडाई ॥ आनंद व दत लघु बुद्धि, बी बरनी न जाई ॥ प्र० ॥ ४ ॥ ॥ अथ पार्श्वजिन स्तवन ॥पनाती रागमां ॥ ॥तुम विना कौन मेरी,गुह लेनहार हे ॥ तुम॥ निशिदिन ध्यान धरूं, कीजे क्युं अवार ॥पारसनाथ साहेवजीको, नाम साचो सार दे ॥ तु०॥१॥प्रा त ताही सेवा करूं, पुप्फनके हार हे ॥ अगर सुवास वास, खेवत सवार हे ।। तु०॥३॥ मरपत हुँ सेवा करूं, नूल चूक माफ हे॥ मेंतो हुँ अजान प्रनु, आ पही सफार हे ॥तु॥३॥ मेरे तो प्रनु एक तूंऊ, सेवक हजार हे ॥ अश्वसेन नंदनजीगुं, मेरो पूरा प्यार हे ॥ तु ॥ ॥ इति ॥ ॥आदि जिनस्तवनं ।। ॥अंग उमाहो मुझने अतिघणो, अलबेला जिनवर
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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