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________________ (ए) संपत्ति अबाधी ॥ सुगु० ॥ पर० ॥ १॥ दर्शन ज्ञान वीरिय सुख संपट, अनंत चतुष्ट निरुपाधि ॥ तस नावादि निखेप नजनथी, थाए स्वरूप समाधि ॥ सुगुणापर॥२॥ इत्यतीश्यि स्वरूपस्तुतिः साप्ता॥ ॥अथ आचार्योपाध्यायानगाराणां॥ ॥युग पत्स्तुति प्रारंजः॥ आचारिज पदसेवा, चहत मन! आचारिज प दमेवा ॥ सुरपति सेवित त्रिपदी अन्यासें, शीश धरे वासखेवा ॥ तीर्थकर देवनंद विराजित गणधर दे शना देवा ॥ च ॥ आ० ॥१॥ अंग वादश च नदश पूरव, मुहर्तमांहे करेवा ॥ नपगारी उवकाय मुनिने, अंग उपांग धरेवः ॥ च ।। आ ॥ २ ॥ निजगुण अधिक नपासक चारो, सिदि अनीह क हेवा ॥ नाव स्वरूपचंइ जिम ननसे, सिविरमण सुख मेवा ॥ च ॥ श्रा० ॥३॥ इति ॥ ॥अथ आत्मगुण स्तवन प्रारंजः।। ॥ आतमगुण अनिलाख्यो, अनुनवी! आतमगु ण अजिताख्यो । दर्शन झान चारित्र तपोगुण, वी रज उपयोग दाख्यो ॥ पुजल गंधादिकथी अलगो, श्री जिनराजे नांरख्यो ॥अनुनवी० ॥ आ॥१॥ तेहनु लक्षण मूलचेतनता, पुजल जड गुण पारख्यो। जिनमत शुक्षस्वरूप नन्नासें, स्वगुण रमण रस चा ख्यो । अनुजवी० ॥ आ॥शाश्त्यात्मगुणस्तुतिः।।
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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