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________________ ( ए ) ति दूर हरे ॥ लक्ष्मी रेन जो जात्रा करियें, ताके का ज सरे ॥ शिखर० ।। ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ पार्श्वजिन स्तवनं ॥ राग काफी ॥ ॥तुमहीं जाके अश्म खेलावो, राउके रीत चलावो रे ॥ तु०॥ हम जोगीसर जे तप साधे, ते तुम नेद न जानो रे ॥ तु०॥९॥ स ग रे कमठ तुं महा तप सा धे, तपको नेद न जान्यो रे ॥ तन तापे मन नाऐ नांहीं, कहा ताप अढ़ानो रे ॥तु॥॥ पन्नग काहे कू अग्नि जलावे,हित चित्त दया न आवे रे । पासप्र नु नवकार सुणावे, धरणीधर पद पावे रे ॥7॥३॥ ॥अथ स्तवनं ॥राग कल्याण ।। ॥ऐसे शेहेर विच कोन दिवान हेरें ॥ऐसे ॥ पानीके कोट पवनके कंगने. दश दरवाजेको मंमान हे रे ।। ऐसे० ॥१|| इसनगरोमें त्रेवीश तस्कर, नग रीकू करत हेरान हे रे ।। ऐसे० ॥ २ ॥ प्रजापोकार सुनी तब जाग्यो, चेतन राय सुजान हे रे ॥ ऐसे ॥३॥ नाथ निरंजन नक्ति तेरी, हाथमें ज्ञान कबा न हे रे ॥ऐसे ॥ ॥ रूपचंद कहे तेहने वारो, पे लो उशमन मान गुमान हे रे ॥ ऐसे ॥५॥ इति ॥ ॥अथ वीरजिन आमलक्रीडानुं स्तवन । ॥ राग प्रजाती॥ तथा वेलावल॥आदि अंत जानुं नही, तुम हो अविनाशी ॥ रामत शामली पीपली, खेल करे विलासी ॥ आदि० ॥ ॥ इंइ सनामें बेठकें, मुख युं जस बोले ॥ तीन जुवनमें को नही,
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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