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________________ (२७) सरी देवी, शत्रुजय सार करे नित्यमेवी, तपगड ऊपर हेवी ॥ श्रीविजयसेन सूरीश्वर राया, श्रीविज यदेव सूरि प्रणमी पाया, षनदास गुण गाया ॥४॥ ॥ अथ सिगिरिराज स्तवनं ॥ ॥गिरिराजकुं सदा मेरी वंदना,जिनको दर्शन दुर्लन देखी,कीधी कर्म निकंदना रे॥गिरि॥१॥ ए अांकगी। विषय कपाय ताप नपशमीयो, जिम मले बावन चंद ना रे ॥ गिरि ॥ २ ॥ धन धन ते दिन कबही रे हो शे, थाशे तुम मुख दर्शना रे ॥गिरि॥३॥ तिहां वि शाल नाव पण होवे, जिहां तुज पदकज फरस ना रे॥गिरि० ॥ ४ ॥ वली वली दरिसन वेहेनुल हीयें, एहं विरह नित नावना रे ॥गिरि॥५चित्त माहेथी कबद न विसारूं, तुम गुण गणनी ध्याव ना रे ॥ गिरि० ॥ ६ ॥ जव जव एहिज चित्तमां चाहूं, मेरे.र नही विचारणा रे ॥ गिरि०॥॥ चित्त रमे दिन मावतनी परें, बहोरी न होय उत्तारणा रे ॥ गिरि० ॥ ॥ छानविमल प्रनु पूरण कृपाथी, सुश्रेणिक बोध सुवासना रे ॥ गिरि० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥अथ कल्याणरागनुं पद ॥ ॥ उरनसुं रंग न्यारा न्यारा, तुमगुं रंग करारी है। तुं मनमोहन नाथ हमारा, अब तो प्रीति तुमारी हे ॥ 3 ॥ १ ॥ योगी होय के कान फडाये, मोटी मुश मारी हे ॥ गोरख कहे तृष्णा नहिं मारी, घर घर नमत निवारी हे ॥3॥२॥ जंगम आवे
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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