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________________ (२७३) ॥४१॥ सुरनर सुख जे दुःख करि लेखवे, वंचे शि वसुख एक ॥ सु० ॥ बीजूं लक्षण ते अंगीकरे, सार संवेगगुंटेक ॥ सु०॥ श्रीजिन॥४२॥ नारक चा रक समनव कनग्यो, तारक जाणिने धर्म ॥ सु० ॥ चाहे निकलवु निर्वेद ते, त्रीजुं सदण मर्म ॥ सु०॥ श्रीजिन ॥४३॥ इव्यथकी मुखियानी जे दया, धर्महीणानी नाव ॥ सु०॥ चोथु लक्षण अनुकंपा कही, निज शकतें मन व्याव ॥सु॥ श्रीजिनम्॥४४॥ जे जिन जांरव्युं ते नहि अन्यथा, एहवो जे दृढ रंग ॥सु०॥ ते आस्तिकता सदण पांचमुं, करे कुमति नो ए नंग ॥ सु०॥ श्रीजिल०॥४५॥ ढाल ॥ जिन जिन प्रति वंदन दिसे ।। ए देशी॥ परतीर्थी परना सुर तेणे, चैत्य ग्रह्यां वलि जेद ॥ वंदन प्रमुख ति . हां नवि करवं, ते जयणा षट नेय रे॥ नविका सम कित यतना कीजें ॥ ए टेक ॥ ४६ ॥ वंदन ते कर जोडन कहिये, नमन ते शीश नमाडे ॥ दान श्ष्ट अ नादिक देवं, गौरव जगत्ति देखाडे रे ॥ नविका० ॥ ४७ ॥ अनुप्रदान ते तेहने कहिये, वारवार जे दा न ॥ दोष कुपात्रे पात्रमतियें, नहि अनुकंपा मान रे ॥ नविका० ॥४७॥ अणबोलावे जेह जांखतुं, ते कहियें पालाप ॥ वारंवार बालाप जे करवो,ते कहिये संलाप रे ॥ नविका० ॥ ४ ॥ ए जयणाथी.समक त दीपे, वलि दीपे व्यवहार ॥ एमां पण कारणथीज यणा, तेना अनेक प्रकार रे॥ नविका० ॥ ५० ॥ ढा
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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