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________________ (२३६) गुरु दीए रे शीख नली पर वैरागें मन जास्यो जी॥ अरणि ॥ ७ ॥ अग्नि ती रे शिला ऊपरें, अर णि अणसण कीधो ज, रूपविजय कहे अन्य ते मुनिवरू, जिणें मनवंदित लीधो जी॥०॥ ५ ॥ ॥अथ पार्श्वनाथनो बंद ॥ ॥ जय जय जगनायक पाश्वजिनं, प्रणताखिल मानवदेवगनं ॥ जिनशासन मंझन स्वामि जयो, तम दरिसन देखी आनंद जयो ॥ १ ॥ अश्वसेन कुलं बरजानुनिनं, नव हस्तशरीर हरितप्रतिनं ॥ भर पिंड सुसेवित पादयुगं, जर जासुरकांति सदा मुनगं ॥ २ ॥ निज रूपविनिर्जित रंनपति, वदनोद्यति शा रद सौमततिं ।। नयनांबुज दीप्ति विशालतरा, तिल कुसुम सन्निन नासा प्रवरा ॥ ३ ॥ रसनामृत कंद समान सदा, दशनावलि अनार कली सुखदा ॥ अ धरारुण विजुम रंगधनं, जय शंखपुरानिध पार्श्व जिनं ॥ ४ ॥ अतिचारु मुकट मस्तक दीपे, कानें कुंमल रवि शशि जीपे ॥ तुम महिमा महि मंगल गाजे, नित्य पंच शब्द वाजां वाजे ॥ ५ ॥ सुर किन्नर विद्याधर आवे, नर नारी तोरा गुण गावे ॥ तुज सेवे चोशन इंश सदा, तुज नामें नावे कष्ट कदा ॥ ६ ॥ जे सेवे तुऊने नाव घणे, नवनिधि थाये घर तेह तणे ॥ अडवडियां तुं आधार कह्यो, समरथ साहिब में आज लह्यो ॥ ७ ॥ उखीयाने सुखडां तुं दा खे, अशरणने शरणे तुं राखे ॥ तुक नामें संकट
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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