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________________ ( २३२ ) र्म निबबंध कोय रे || ध्यान शुड़ें समकित निर्मल ता, स्वर्ग मुगति फल होय रे ॥ जय० ॥ ७ ॥ इव्य नाव विधि पूजो प्रणमो, नाम जपो नर नार रे ॥ स्तव न जाणो मद मन्त्र मूकी, उतपति साची मन धार रे ॥ जय० ॥ ८ ॥ कलश | इस खुल्यो गोडीपास स्वामी, हुकुम पाम जेहनो ॥ दिशदिशें पसरतो रति हरतो, प्रगट परतो जेहनो ॥ श्री अमरसागर सरि अंचल, गढपतिराय पसाउ ॥ पय नमी लखमीचं वाचक, शिष्य लावण्य इम नये ॥ ए ॥ इति श्री गोडी पारसनाथजीनुं चोढालीयुं संपूर्ण ॥ ॥ अथ पारसनाथनो बंद प्रारंभः ॥ ॥ आपण घर वेठा लील करो, निज पुत्र कलत्र शुं प्रेम धरो ॥ तमें देश देशांतर कां दोडो, नित्य पास जपो श्रीजिन रूडो ॥ १ ॥ मनोवंबित संघलां काज सरे, शिर उपर चामर बत्र धरे ॥ कलमल चाले प्रागल घोडो, नित्य पास जपो श्रीजिन रुडो ॥ २ ॥ नूतने प्रेत पिशाच वली, साय ने दायणी जाय ट ली ॥ बल बिड् न कोइ लागे जूडो ॥ नित्य० ॥ ३ ॥ एकांतर ताव सीयो दाह, उपध विण जाये खणमांद ॥ नवि दुःखे मायुं पग गूडो ॥ नित्य० ॥ ४ ॥ कंठमा ला गडबड सबला, तस उदर रोग टले सघला ॥ पीडा न करे फिन गल फोडो ॥ नित्य० ॥ ५ ॥ जा गतो तीर्थकर पास बहू एम जाणे सघलो जगत सदू ॥ ततक्षण प्रशुंन कर्म तोडो ॥ नित्य० ॥ ६ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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