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________________ (२२६) न मांहे शरीरा ॥ मेरु अचल जिम अंतरजामी, पण न रहे प्रनु एकण ठामी ॥ १० ॥ लोक कहे जिन जी सब देखे, पण सुपनांतर कबहुं न पेखे ॥रीश विना वावीश परीसा, सेना जीती ते जगदीशा॥११॥ मान विना जग आण मनाई, माया विना शिवगुं लय लाई ॥ लोन विना गुणराशि ग्रहीजें, निरकु जये त्रिगडो सेवीजें ॥ १३ ॥ निथपणे शिर बत्र धरावे, नाम यति पण चमर ढलावे ॥ अनयदान दाना सुख कारण, आगल चक्र चले अरिहारण ॥ १३ ॥ श्रीजिनराज दयाल जणीजें, करम सवें को मूल खणीजें ॥ चनविद संघह तथ थापे, जही घणी देखे नवि आपे ॥ १४ ॥ विनयवंत जगवं त कहावे, न काढूकू शीश नमगवे ॥ अकिंचनको बिरु द धरावे, पण सोवनपद पंकज गवे ॥ १५॥ राग नहीं पण सेवक तारे, क्षेप नहीं निगुणा संग वारे॥ तजी आरंन निज आतम ध्यावे, शिव रमणीको साथ चलावे ॥ १६ ॥ तेरो महिमा अनुत कहि यें, तोरा गुनको पार न सहीयें ॥ तुं प्रनु समरथ साहेब मेरा, ढुं मनमोहन सेवक तेरा ॥ १७ ॥ तूं रे त्रिलोकतणो प्रतिपाल, हूं रे अनाथी तुं रे द याल ॥ तुं शरणागत राखणधीरा, तुं प्रनु तारक बो वड वीरा ॥ १७ ॥ तुंदि समोवड नागज पायो, तो मेरो काज चड्यो रे सवायो ॥ कर जोडी प्रनु विनवू तोसुं, करो कृपा जिनवरजी मोसुं ॥१॥॥ जनम
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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