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________________ (१५) जाणने झुं कहे घj, एक वचनमें लाख ॥ जि ॥ मोहन कहे कवि रूपनो, नक्ति मधुर जिम ाख ॥ जि० ॥ ५॥ इति अनंतनाथ जिन स्तवनं ॥ ॥ अथ अनंतजिन स्तवन प्रारंजः ॥ ॥ वालम वेहेला रे आवजो ॥ ए देशी ॥ ॥प्रोतडी अनंत जिनराजनी, दर्शन जावथी नावे रे ॥ पयडी बंधादि स्वनावथी, अनुनव परम रस आवे रे॥ प्री० ॥१॥ स्मृतिव्यतिरिक्त प्रास्वादमां, प्रगट चिदुनूप अतिरु६ रे ॥ सांख्य बोधादि संबो धथी, निन्न प्रनुरूप अतिशुभ रे ॥प्री०॥ २ ॥ विमुख सोपाधि अन्यासथी, संमुख अनुपाधि अनुयोग रे ॥ लीनता साध्य जे सहजथी, नावट परिपाक अजिनो ग रे ॥ प्री० ॥३॥ सिसंस्कार संसारमें, अनिमत ए किस्यो ख्याल रे ॥ निन्न अनिन्न बिटुं किम घटे, के हेनो सेंथो केहेनी टाल रे ॥प्रा०॥४॥ नव्य ताया प्रनुने घणु, हुँ नवि सबढुं वाच रे ॥ तारे जो मुफ तृपातीतने, तारक विरुद तो साच रे ॥ प्रा० ॥ ५॥ दान अथ हरण हिंसा दया, जोगके नोग अनिराम रे ॥ इम किम तुमने संनवे, कीजिये जेम ते काम रे॥ प्री० ॥ ६ ॥ अनंत पयथी नपपत्तिनो, असंख्य ले यात्मप्रदेश रे ॥ तेह रे स्वामीने संनव्यो, जाणवू एह विशेष रे॥ ॥ ७॥ चतुरप्रतें तुज पद क्रिया, दुती होये बंध निबंध रे ॥ प्रकृति ध्रुवबंध लहे वक्रता, होय वली अनुगमखंध रे ।। प्री० ॥ ७ ॥ सप्तनय
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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