SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१७) बो त्यागी शिव वास वसो बो, दृढरथसुत रथें केम बेसो बो ॥ सा ॥ आंगी प्रमुख परिग्रहमां जो पडशो, हरिहरादिकने किण विध नडशो ॥ २ ॥ सा० ॥ धुरथी सकल संसार निवास्यो, किम फरि देवश्व्यादिक धाखो॥ सा ॥ तजी संयमनें थाशो गृहवासी, कुण आशातना तजशे चोराशीसा॥३॥ समकित मिथ्यामतिमें निरंतर, श्म किम जांजशे प्र नुजी अंतर ॥ सा० ॥ लोक तो देखशे तेहq कहेशे, श्म जिनता तुम किण विध रहेशे ॥ सा० ॥ ४ ॥ पण हवे शास्त्रगतें मति पोहोंची, तेहथी जोयुं में नहुं आलोची ॥ सा ॥ इम कीधे तुम प्रनुताई न घटे, साहामो श्म अनुजव गुण प्रगटे ॥सा ॥५॥ हयगय यद्यपि तुंआरोपाए, तोपण सिपणुं न लो पाए ॥ सा० ॥ जिम मुकुटादिक नूषण कहेवाए, प । कंचनती कंचनता न जाए ॥ सा० ॥ ६ ॥ नक्त नीकरणीयें दोष न तुमने, अघटित केह, अजुक्त ते अमने ॥ सा ॥ लोपाए नहि तुं कोईथी स्वामी, मो हनविजय कहे शिर नामी ॥ सा ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री शितलजिन स्तवनं ॥ ॥घोडी तो आइ थारा देशमां मारूजी ॥ ए देशी॥ ॥ शीतल जिनवर सेवना साहेबजी, शीतल जिम शशिबिंब हो ॥ससनेही॥ मूरत माहरे मन वसी। सा॥शा पुरुषांगुं गोठडी ॥सा॥ मोहोटो ते आला खूब हो॥स॥१॥ दण एक मुऊने नवीसरे ॥ सा॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy