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________________ (१६७) नंद ॥ महारा० ॥ हृदय कमलनो हंसलोरे, मुनिजन कैरव चंद ॥ महारा० ॥५॥तुं समरथ शिर नाहलो रे, तो वाधे जशपूर ॥ महारा० ॥ जीत निशानना नादची रे, नाठा उशमन दूर ॥ म हारा ॥ ६ ॥ श्री सुमति सुगुरु पद सेवना रे, कल्प तरुनी बांहे ॥ महाराा ॥ रामप्रनु जिन वीरजी रे. ने अवलंबन बांहे॥ महारा० ॥ ॥ इति । कलश ।। एम नुवन नाषण दुरित नाशन, विमल शासन जिनवरू ॥ नव नीति चूरण बाशपूरण, सुमति का रण शंकरू ॥ में शुण्यो नगर्ने विविध जुगतें, नगर म हीराणे रही ॥ श्रीसुमति विजय गुरु चरण सानि धि, रामविजय जयश्री लही ॥ १ ॥ इति पंमित श्री रामविजय रूत चोवीशी संपूर्ण ॥. ॥ अथ पंमित श्री मोहनविजयजीकृत चोवीस जिनस्तवनं प्रारंनः ॥ -->o<= > ॥ तत्र प्रथम ॥ श्रीकानजिन स्तवनं ॥ त्रीजे नव वरथानक तप करी ॥ ए देशी॥ बालपणे आपण ससनेही, रमता नव नव वेशे ॥ आज तुमें पाम्या प्रनुताइ, अमें संसार निवे शेहो प्रनुजीयोलंनो मत खीजो ॥ ए आंकणी॥ ॥ १ ॥ जो तुम ध्यातां शिव सुख लहीयें, तो तुमने केश ध्यावे ॥ पण नव स्थिति परिपाक
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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