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________________ (११) हेशो तुमें सा॥श्री॥४॥ नीरागीशुं रे किम मले, पण मलवानो एकंत ॥ वाचक यश कहे मुज मिल्यो, नतें कामण तंत ॥ श्री० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री वासुपूज्य जिन स्तवनं ॥ ॥साहेबा मोतीडो हमारो ॥ ए देशी ।। स्वामी तुमें कां कामण कीg, चित्तहुं अमारुं चोरी लीधं ॥ साहेबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य ॥ ए यांकणी॥ अमें पण तुमगुंकामण करगुं, नक्ति ग्रही मन घरमा धरघु ॥ साहेबा० ॥ ॥ मन घरमां धरीया घरशोना, देखत नित्य रहेशो थिरथोना ॥ मन वैकुंव अकुंठित नक्, योगी नांखे अनुनव युक्तं ॥ सा० ॥२॥ क्लेशे वासित मन संसार, क्वेश रहित मन ते नवपार ॥ जो विशुद मनघर तुमें आव्या, प्रनु तो अमें नव निधि दिपाव्या ॥ सा ॥३॥ सात राज अलगा जइ बेठा, पण जगतें अम म नमा पेठा ॥ अलगाने वलगा जे रहेg, ते नाणा खड खड फुःख सहेवू ॥ सा० ॥ ४ ॥ ध्या यक ध्येय ध्यान गुण एकें, नेद वेद करा हवे टेकें॥ खीर नीर परें तुमगुं मला, वाचक यश कहे हेजें हलगुं ॥ सा० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री विमल जिन स्तवनं ।। ॥ नमो रे नमो श्री शेजा गिरिवर ॥ ए देशी॥ ॥ सेवो नविया विमल जिरोसर, उनहा सऊन संगाजी ॥ एवा प्रजुनु दरिसन लेवं, ते मालसमांहे
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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