SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (११७) सु० ॥३॥ साची नक्ति रे जावन रस कह्यो, रस होय तिहां दोय रीजेजी॥होडा हो. रे बिहुँ रसरीजथी, मनना मनोरथ सीफे जी ॥सु॥४॥ पण गुणवंता रे गोतें गाजियें, मोहोटा ते विश्रामजी ॥ वाचक यर कहे एहज आशरे, सुख नहुँ तामो गमजी ॥सु॥५॥ ॥ अथ श्रीसुपास जिन स्तवनं ॥ ॥ लालदे मात मलार ॥ए देशी ॥ श्री सुपा स जिन राज, तुं त्रिनुवन शिर ताज ॥ आज हो बा जेरे ठकुराइ, प्रनु तुऊ पद तणीजी ॥१॥ दिव्य ध्व नि सुर कूल, चामर बत्र समूल ॥ आज हो राजे रे नामंगल, गाजे उंनिजी ॥ ॥अतिशय सहजना चार, कर्म खप्याथी अग्यार ॥ आज हो कीधा रे । गणीशे, सुर गण जासुरें जी ॥ ३ ॥ वाणी गुण पां त्रीश, प्रातिहारज जगदीश ॥ आज हो राजे रे दी वाजे, बाजे आग्गुंजी॥ ४ ॥ सिंहासन अशोक, वे नामांहें लोक ॥ आज हो स्वामी रे शिवगामीरे, वा चक यश थुण्योजी ॥ ५॥ इति ॥ ॥ अथ श्री चंप्रन जिन स्तवनं ॥ ॥ धणरा ढोला ॥ए देशी ॥ चंप्रन जिन साहेबा रे, तुमें बो चतुर सुजाण ॥ मनना मान्या ॥ सेवा जाणो दासनी रे,देशो पद निरवाण॥मनना मान्या। श्रावो आवोरे चतुर सुख नोगी, कीजें वात एकांत अनोगी, गुण गोठे प्रगटे प्रेम ॥ मनना मान्या ॥१॥ ए आंकणी ॥j अधिकुं पण कहे रे, आसंगायत
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy