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________________ (६३) कार तणी कोई आदि न जाणे, श्म नांखे अरि हंत ॥ पूरव दिशि चारे आदि प्रपंचे, समस्यां संपति सार ॥ सो० ॥ १४ ॥ परमेष्टि सुरपद ते पण पामे, जे कृतकर्म कठोर ॥ पुंमरगिरि कपर प्रत्यद पेख्यो, मणिधरने एक मोर ॥ सह गुरुने सन्मुख विधि सम रंतां, सफल जनम संसार । सो॥ १५ ॥ शूलिका रोपण तस्कर कीयो, लोहखरो परसिह ॥ तिहां शेनें नवकार सुणाव्यो, पाम्यो अमरनी २६॥ शेठने घर यावी विघ्न निवास्यां, सुरें करी मनोहार ॥सो॥१६॥ पंच परमेष्टि झानज पंचह, पंच दान चारित्र ॥ पंच सद्याय महाव्रत पंचह, पंच सुमति समकित्त ॥ पंच प्रमादह विषय तजो पंच, पालो पंचाचार ॥ सो॥ ॥ १७ ॥ कलश उप्पय ॥ नित जपीयें नवकार, सारसंपति सुखदायक ॥ शु६ मंत्र ए शाश्वतो, इम जंपे श्री जगनायक ॥ श्री अरिहंत सुसिह, शुरु आचार्य नणीजें ॥ श्री नवद्याय सुसाधु, पंच पर मेष्ठि शुगीजें ॥ नवकार सार संसार , कुशल लान वाचक कहे ॥ एक चित्तें आराधतां, विविध ऋदि वंबित लहे ॥ १७ ॥ इति नवकार बंद ॥ ॥अथ श्री शोल सतीनो बंद ॥ ॥ आदि नाथ यादें जिनवर वंदी, सफल मनो रथ कीजियें ए॥ प्रनातें उठी मंगलिक कामें, शोल सतीनां नाम लीजीयें ए॥ १ ॥ बाल कुमारी जग हितकारी, ब्राह्मी जरतनी बेहेनडी ए ॥ घट घट
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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