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________________ (५७) वन कारणे रे, ए समुं तीर्थ न कोय ॥ मोहाटो म हिमा रे महियल एहनो रे, आ जरतें इहां जोय ॥ ॥ मा० ॥ ५॥णे गिरि आव्या रे जिनवर गणधरा रे, सीधा साधु अनंत ॥ कठिन करम पण इण गिरि फरसतां रे, होये कर्मनी शांत ।। मा० ॥३॥ जैन धरमनो जाचो जागीयें रे,मानव तीर्थ ए यंन।। सुर नर किन्नर नृप विद्याधरा रे, करता नाटारंन । ॥ मा० ॥४॥ धन धन दाहाडो रे धन धन ए घडी रे, धरीयें हृदय मकार ॥ ज्ञानविमा प्रनुहना गुण घणारे, कहेतां ना पार ॥ मा० ॥५॥ इति ।। ॥अथ संजवजिन स्तवनं ।। . ॥ हुँ तो जाग्रे जिन दरबार, प्रनु मुख जोवाने॥ प्रनु आपे रे समकित सार, शिव सुख होवाने ॥१॥ साथें लीधां रे निरमल नीर, प्रनुने पखालवा रे ॥ शुरू कीधां रे प्रनुनां शरीर, नव दुःख टालवा रे ॥ ॥ २ ॥ घसा घसी रे केशर कपूर, नवे अंगें पूजिये। हसी हसी रे आणंद पूर, शिव सुख लीजियें ॥३॥ एहवे आवी रे अमरनी नार, प्रनुजीने वीनवे ।। साथें लावी रे फूलडानो हार, प्रनुने कंठे ग्वे॥४॥ आगल नाचे रे थर थकार, सदु टोले मली। दिल साचेरे करी शणगार,प्रणमे ललीलली ॥ ५ ॥ हाथ जोडी रे प्रचुजीनी पास, नक्ति घणी करे ॥मान मोडी रे गावे जास, प्रलु मनमां धरे ॥ ६ ॥ पालो पालो रे मुगतिनो वास,प्रनु करुणा करी ॥ टालो टालो रे न
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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