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________________ (४६) रो हाल्यो सद्ध चिंता गई रे जो ॥ एम सुखचर रहे तां पूरण दुवा नव मास जो, ते कपर वली साडी सात रयणी थई रे जो ॥ १२ ॥ तव चैत्र तणी शुदि तेरस उत्तरा रिरक जो ॥ जनम्या श्रीजिन वीर दुई वधामणी रे जो ॥ सदु धरणी विकसी जगमां थयो प्रकाश जो. सुर नरपति घर ऋष्टि करे सोवन तणी रे जो ॥ १३ ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ माहरी सही रे समारणी ॥ देशी ।। ॥ जनम समय श्रीवीरनो जार्ण , श्रावी तप्पन कुमारी रे॥ जग जीवन जिनजी॥ जनम महात्म्य करी गीतज गाये, प्रनुजीनी जावं वतिहार। ॥ ज ॥ १ ॥ ततदए इंद सिंहासण हाल्युं, घोप घंटा वडावी रे ॥ ज० ॥ मलिया कोडि सुरासुर देवा, मेरु पर्वतें आवी रे ॥ ज० ॥ ॥ इंदो पंच रूपें प्रनुजीने, सुरगिरि ऊपर लावे रे ज ॥ यत्न करी हियडामा राखे, प्रचुन शीश नमावे रे ॥ज॥ ॥३॥ एक कोडी शाठ लाख कलशला, निरमल नीरें नरिया रे ॥ ज० ॥ नाहानो बालक ए किम सहेशे, इं३ संशय धरिया रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ अतुलि बल जिन अवधे जोई, मेरु अंगुठे चंप्यो रे ॥ ज०॥ दृथिवी हाल कनोल थई तव, धरणीधर तिहां कंप्यो रे ॥ ज० ॥ ५ ॥ जिननुं बल देखीने सुरपति, नक्ति करीने खमावे रे ॥ ज० ॥ चार वृषननां रूप धरीने, जिनवरने नवरावे रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ अमृत अंगुठे
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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