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________________ (३७) मन विकसित होवें, एहि अजब तमासा रे ॥ चिं० ।। ॥४॥ पास जिनेसर पल न विसारूं, जब जग तनमें सासा रे ॥ ग्यानमहोदय चरण सरोजे, करूणोदधि हे दासा रे ॥ चिं० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥अथ क्यानजिन स्तवनं ॥ ॥ जीरे सफल दिवस आज माहरो, दंगे प्रनु नो देदार ॥ लय लागी जिनजीथकी, प्रगट्यो प्रम अपार ॥ घडी एक विसरो नहिं साहिवा, ताहिका घणो रे सनेह ॥ अंतरजामी दो महरा, मरुदं वीना नंद ॥ १०॥ १ ॥ जीरे लघु थक्ने मनटुं रही, प्रनु सेवाने काज ॥ ते दिन क्यारें आवशे, शिव सुखना दातार ॥ १० ॥ २ ॥ जीरे प्राणेसर प्रनुजी तुमें, प्रातमना आधार ॥ माहारे मन प्रनु तुमें एक बो, जाणजो जगदाधार ॥ १०॥ ३ ॥ जीरे एक घडी प्रनु तुम विना, जाए वरस समान ॥ प्रेम विरह तुऊ केम खमुं, जाणो वचन प्रमाण ॥ १० ॥४॥ जीरे अंतरगतनी वातडी, कहो केने कहेवाय ॥ वालेसर विशवासीने, कहेतां दुःख जाय ॥ १० ॥ ५ ॥ जीरे देव अनेक जगमांहे , तेहनी रीत अनेक ॥ तुऊ विना अवरनें नही न{. एवी मुक मन टेक ॥ १० ॥ ६ ॥ जीरे पंमित विवेकवि जय तणो, नमे शुन मन जाय ॥ हर्ष विजय श्री षनना, जुगतें गुण गाय ॥ १० ॥ ७ ॥ इति ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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