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________________ (३४) शीलवंत नवि सुवे हो, वली सहेजें गाल न दीजियें ॥ १ ॥ न सुवारे निज पास, साडा ब वरसनी हो कांक्ष, पुत्रीने पण हेजमां ॥ सात वरस नपरांत, सुतने पण न सूवारे हो, कांश शीलवंति तेम सेजमां ॥२॥ स्त्रीसंगें नव लाख, जीव पंचेंदिहणाये हो, जगवंतें नांरव्युं इस्युं ॥ असंख्याता पण जीव, संमूर्तिम पंचेंश्यि हणाये हो, वली घणुं कहीएं किस्युं ॥३॥ इम जाणी नर नार. शीयजनी मदहणा दो. सूधी दिलमां धारजो ॥ एह उर्गतिनुं मूल, अब्रह्म सेवा मांहि हो, जातां दिलने वारजो॥४॥ तपगन गयण दिणंद, मन वंबित फल दाता हो, श्री हीरत्नसूरी श्वर ॥ पामी तास पसाय, वाडो एम वखाणी हो. शीयलनी मनोहरु ॥ ५ ॥ खनात रही चोमास, सत्त रशे वेश हो, श्रावण वदि बीज बुधे जगे ॥ उदय रत्न कहे कर जोड, शियलवंत नर नारी हो, तेहनें जाऊं नामणे ॥ ६ ॥ इति श्री नववाड सपूर्ण ।। ॥ अथ श्रीतमाकूनी सजाय लिरव्यते ॥ ॥ प्रीतमसेंती वीनवे, प्रेमदा गुणनी खाण ॥ मेरे लाल ॥ मन मोहन एकण चित्तें, सांजलो चतुर सु जाण ॥ मे ॥ १ ॥ कंत तमाकू परिहरो ॥ ए यां कणी ॥ मूको एहनो संग ॥ मे ॥ पंचमांहे जस तीजीयें, मीलें वाधे रंग ॥ मे ॥ कं० ॥ २ ॥ तमाकू ते जाणियें, खुरासाणीनी आक ॥ मे ॥ उ त्तम जन ते श्म कहे, पीवानी तलाक ॥मे०॥ ॥३॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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