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________________ ८८) (तृतीय भाग (१०) मिथ्यादर्शनशल्य क्रिया- अज्ञानरूपी--मिथ्यात्वरूपी शल्य से होने वाली हिंसा । ' (११) दृष्टिका क्रिया-द्वेषदृष्टि से अथवा वैरभाव से देखने पर होने वाली हिंसा। ' (१२) स्पष्टिका क्रिया-कोमल अथवा कठोर स्पर्श होने पर पैदा होने वाले विकार अथवा दुर्भा वना जनित हिंसा । (१३) प्रातीतिकी क्रिया-ईर्पा से-पर उन्नति के प्रति असहि ष्णुता से उत्पन्न होने वाली हिंसा । (१४) सामतोपनिका क्रिया-अपनी प्रशसा से अहकार करने पर उत्पन्न होने वाली हिंसा । (१५) न्यस्तिका क्रिया-जीव अथवा अजीव को फेकने से लगने वाली हिंसा । (१६) स्वहस्तिका क्रिया-अपने हाथ द्वारा अथवा अन्य रीति से शिकार द्वारा लगने वाली क्रिया । (१७) आज्ञापनिका क्रिया अन्य को आदेश देकर कराई जान वाली क्रिया । (१८) विदारणिका क्रिया-जीव आदि को विदारण करने से । अथवा अन्य किसी के पाप को प्रका शित करने से लगने वाली क्रिया। (१९) अनाभोग प्रत्यया-अकारण ही वस्तुओ को उठाने अथवा रखने मे अविवेकता जाहिर करने से । लगने वाली क्रिया ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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