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________________ जैन पाठावली ) (३९ तप के दो भेद हैं - ( १ ) बाह्य ओर ( २ ) आभ्यन्तर । बाह्य तप मे शरीर की क्रिया मुख्य है, अतएव वाघ अतएव वाघ तप द्वारा इन्द्रियो को वश में किया जाता है । आभ्यन्तर तप में मानसिक क्रिया की मुख्यता है । इस तप से विशिष्ट आत्मशुद्धि होती है । बाहय तप, आभ्यन्तर तप में उपयोगी है। इस कारण उसका महत्त्व है । इन दोनो प्रकार के तपो मे सभी छोटेमोटे धार्मिक नियमो का समावेश हो जाता है । बाघ तप के छः भेद : (१) मर्यादित समय के लिए अथवा जीवन के अन्त तक सव प्रकार के आहार को छोड देना 'अनशन' तप है । (२) भूख से कम आहार करना 'ऊनोदरी' तप है । (3) भिन्न-भिन्न प्रकार की लालचो को कम करना 'वृत्ति - 'पक्षेप' तप है । 1 (४) घी, दूध आदि तथा अन्य स्वादिष्ट वस्तुओ का त्याग करना 'रसपरित्याग' तप है । ד को (५) सर्दी से, गर्मी से या जुदा-जुदा आसनो द्वारा शरीर कृश करना, केशलोच करना आदि 'कायावलेग' है । J ( ६ ) इन्द्रियो तथा मन को वश में रखना, सावद्य योग त्याग कर एकान्त स्थान में निवास करना ' विविक्तशय्यासन ( प्रतिसलीनता ) तप है । जाभ्यंतर तप के छः भेद : १ (१) ग्रहण किये हुए व्रती में दोष लगने पर शुद्धि करना । प्रायश्चित्त' है ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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