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________________ अर्थ (तृतीय भाग मूल परमत्थसंथवो वा- परमार्थ-जीवादि नी तत्त्वो के पहचान करना और सुदिनुपरमत्थसेवणा- जिन्होने परमार्थ-मिद्धान्त को भलं भांति जाना है उनकी सेवा करन वा वि और वावन्न सम्यक्त्व या चरित्र से ध्रप्ट व्यापर कुदंसण कुदर्शन मिथ्यामत को मानने वाले कं वज्जणा य सगति न करना सम्मत्तसद्दहणा-- (इस प्रकार) समकित की श्रद्धा है अरिहंतो मह देवो-- अरिहत मेरे देव है जावज्जीवाए-- जीवन पर्यन्त सुसाहुणो गुरुणो-- मच्चे साधु (मेरे) गुरु है जिणपण्णत्तो धम्मो-- सर्वज्ञ का कहा हुवा धर्म ( मेरा धर्म है) इअ सम्मत्त-- इस प्रकार का सग्यवत्व मए गहिअं-- मंने ग्रहण किया है एअस्प सम्मत्तस्स- इस सम्यक्त्व के समणोवासएणं- श्रावक को । इमे पंच अइयारा- यह पाच अतिचार पेयाला प्रधान (ब) स्त्रियो को आविका को' एसा बोलना चाहिए ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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