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________________ -- २३०...... .(जन पाठावली (८), मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया । सब जीवो को मोक्ष-मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध, वीर, जिन हरिहर, ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो ॥ १॥ विषयो की आशा नही जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-पर के हित-साधन में जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थत्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है। ऐसे ज्ञानी साधु जगत् के, दुःख समूह को हरते हैं ॥२॥ रहे सदा सत्सग उन्ही का, ध्यान उन्ही का नित्य रहे । उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त, सदा अनुरक्त रहे ।। नही सताऊ किसी जीव को, झट कभी नही कहा करू । परधन वनिता पर न लुभाऊ, संतोषामृत पिया करू ॥ ३ ॥ अहंकार का भाव न रवख, नही किसी पर क्रोध करू । देख दूसरो की बढती को, कभी ने ईप्याभाव धरूं ॥ रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करू । बने जहाँ तक इस जीवन मे, औरो का उपकार करु ॥४॥
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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