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________________ तृतीय भाग) (१८९ नन्दन माणियार का नाम अब खूब प्रसिद्ध हो गया । लोग उसे धन्य धन्य कहने लगे। इस कारण नन्दन की आसक्ति बढती ही जाती थी। नन्दन मणियार जनता की सेवा करता था, मगर उस सेवा में कीत्ति की कमना थी। . एक बार नन्दन मणियार बीमार हो गया। देश-देश के वैद्य इलाज करने आये । मगर उसकी मृत्यु निकट आ गई थी नन्दन मत्यु के बिछौने पर पड़ा था, मगर उसका मन अब भी पुष्करिणी में ही था । 'मेरी बावडी, हाय मेरी बावडी' करते करते ही उसके प्राण-पखेरू उड गए । ', 'जैसी मति वैसी गति ।' नन्दन मणियार मरकर मेंढक हुआ। वह नन्दन पुष्करिणी में टर्र-टर्र करने लगा। वह कूदता फुदकता और मौज करता ।। वालको । मरते समय जो धन धन करता है, वह मर कर धन की रखवाली करने वाला सांप होती है। भारत मेरा . हिरन, हाय मेरा हिरन' करते-करते ही हिरन हुआ था। इस लिए मरते समय प्रम का भंजन करना चाहिए। अत समय में जो भक्ति रखता है, उसी को मरण सुध नन्दन ने काम तो लोकोपयोगी किया, मगर बावडी में प्रवल ऑसंक्ति होने से तथा कीर्ति की कामना होने से उसे उसी वाबडो में मेढक होना पड़ा। आसक्ति का फल ऐसा होता है।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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