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________________ जन पाठावली. स्थूलभद्र भोगी मिटकर त्यागी बने । देहविलासी की जगह आत्मविलासी बने । उन्होने कला के सच्चे आत्मा को पहिचान लिया । असली सुन्दरता का मूल परख लिया । इस आनन्द का अनुभव करते- करते वे मस्त हो गये। एक दिन उनके मन मे आया कोशा को भी यही आनन्द चखाऊँ तो कितना अच्छा हो ।' उन्होने अपने मन की यह बात गुरु के. सामने कही । गुरु स्थूलभद्र को समझ चुके थे। उन्होने कहाभले देवानप्रिय । यह चौमासा वही बिताओ। आनन्द से जाओ और तुम्हारे निमित्त से कोशा का भी कल्याण हो। ' गुरुजी की आज्ञा मिल गई । अन्त करण का आशीर्वाद भी मिल गया । स्थूलभद्र कोशा के महल में आये । । स्थलभद्र के दीक्षा लेने पर कोशा को बहुत बुरा लगा था। उसके विरह के दुख से वह झुलस-सी गई थी। आज: उसने स्थूलभद्र को साधु के वेष में ही सही, पर देख पाया । उसके हर्ष का पार न रहा । पहले के प्रसंग याद आ गये । दिल उमड आया । पर मुनिके मन में ऐसी कोई बात नही थी । उन्होने आज्ञा लेकर को गा के महल में ही निवास किया । दिन बीतते चले गए । मुनि अपने ता, त्याग और ध्यान में मस्त थे । कोशा की इच्छा पूरी नही हुई, अत वह आकुल-व्याकुल होन। लगी । वह स्थूलभद्र को फिर अपना प्यारा वनान" चाहती है । लेकिन स्थूलभद्र का तेज देखकर उसकी जीभ नहीं खुलती।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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