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________________ १३६) (जैन पाठावली इसके बाद भी सती पर अनेक सकट आये। पूरे वारह वर्ष तक पति ने वनवास किया। सती बराबर उनके साथ ही रही । एक वर्ष के अज्ञात-वास मे भी पति के साथ रही। विराट नगर की रानी के पास सैरध्री नामक दासी बनकर रही। रानी के भाई कीचक ने वहाँ भी द्रौपदी को सताने मे कसर नही रक्खी । पर इस वीरागना सती ने प्राणो की परवाह न करके अपने गील की रक्षा की। बहुत से कष्ट सहन करके पाण्डव प्रकट हुए । अव . दुर्योधन को इनका राज्य इन्हे सौप देना चाहिए था। पर उसे तो रावण की तरह राज्य-मद चढा था। श्रीकृष्ण वासुदेव खुद आये और उन्होने दुर्योधन को समप्लाया । विदुर ने कहा-'अरे पाँच गाँव तो पाण्डवो को दे ।' मगर दुर्योधन नही माना, नही माना । - कुरु क्षेत्र मे युद्ध छिडा । लाखो आदमियो का खून वहा । अन्त मे पाण्डवो की जीत हुई । द्रौपदी फिर महारानी बनी। लेकिन सती के मन मे आया-इस रूप की बदौलत न जाने कितने ही नष्ट-भ्रप्ट हुए और इस राज्य के खातिर कितना नरसहार हुआ किस काम का है यह रूप? किस मतलव का है यह राज्य ? इस विचार से चित्त मे वैराग्य जाग उठा। सती त्यागी वनी । इनके सव पतियो ने इन्ही का मार्ग पकड़ा। भगवान् नेमिनाथ के पास दीक्षा ग्रहण की और सभी ने आत्मा का कल्याण किया।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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