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________________ जैन पाठावली ) (१०५ ( १ ) प्रकृति अर्थात् स्वभाव | आत्मा के साथ चिपककरें - कर्म पुद्गलो में जो ज्ञान को आवृत्त करने का, दर्शन को आवृत्त करने का, सुख-दुख का अनुभव कराने का आदि -आदि स्वभाव निश्चित होता है वह 'प्रकृतिबन्ध' कहा जाता है । } (२) स्थिति अर्थात् कालमर्यादा | स्वभाव निश्चित होने - के बाद वह जितने समय तक आत्मा के साथ टिक कर रहे, उस काल मर्यादा को 'स्थितिबन्ध' कहा जाता है । (३) अनुभव अर्थात रस । प्रकृतिबन्ध होने के बाद वह * मन्द, तीव्र आदि फल का जैसा अनुभव कराता है बही अनुभागवन्ध' अथवा 'रसबन्ध' कहा जाता है । { (४) प्रदेशबन्ध - बधे हुए कर्म पुद्गलो का विभिन्न स्वभाव अनुसार अमुक-अमुक परिमाण में विभाजित हो जाना इसी का नाम 'प्रदेशबन्ध ' है । कर्म के भेद कर्म मूल तो एक ही है परन्तु अध्यवसाय अर्थात् इच्छाओ की विचित्रता के कारण कर्मों के स्वभावो का निश्चय होता है और ये स्वभाव आत्मा के ऊपर अपना-अपना भिन्न २ - प्रभाव पहुँचाते हैं, ऐसे प्रभाव कई प्रकार के है, इसी प्रकार ऐसे प्रभाव उत्पन्न करने वाले स्वभाव भी अनेक प्रकार के होते हैं, यह स्वाभाविक ही है । फिर भी इन स्वभावो का विभाजन करके इन सभी को आठ भाग में विभाजित कर दिया है, इनको 'पकृतिबन्ध' कहा जाता है । वे आठ प्रकृति भेद इस प्रकार हैं
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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