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________________ २ रत्नत्रय की भूमिका आरोहक एवं सामान्य जन विशेष का धर्मोपदेशक । गुरुगति-अभेद्य पदार्थों में प्रवेश करने की गति । गुरुमूढ़ता-सदाचार के विपरीत आचरण करने वाले गुरु के प्रति निष्ठा। गृहकर्म-१. जिन मन्दिर में मूर्तियो की रचना, २. गार्हस्थ्य मूलक क्रिया। गृहस्थ-धर्म-श्रावक-धर्म । गृहस्थ द्वारा आचरित नित्य और ने मित्तिक देव-पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान आदि धार्मिक कृत्य । गृहीत मिथ्यात्व-उपदेश सुनने पर भी तत्त्वार्थ में अरुचि रहना। गौचरी-भिक्षाचर्या, जंगल में घास चरने वाली गाय की तरह निष्काम वृत्ति से आहार ग्रहण करना , मधुकरी । गौत्र-कर्म विशेष । उच्च या नीच जाति विशेष । कुल विशेष । गौरव-गुणों के ज्ञान से उत्पन्न महानता । अन्थि-राग-द्वेष का प्रगाढ़ भाव ; परिग्रह विशेष । प्रास-एक हजार चावल का एक कौर । ग्लान-असमर्थ । व्याधि से पराभूत । [ ४७ ]
SR No.010280
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size3 MB
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