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________________ [ १६५ था। वे किसी तरह नेमिकुमारको शक्तिहीन बनाने का संकल्प करते हुए राज्यमहल में पहुंचे | प्रत्येक माता के हृदय में अपने पुत्रसे कुछ भाशाएं रहती हैं । अपने स्नेहका प्रतिफल चाइनेकी अभिलाषा उनके हृदयको निरंतर दी तरंगित किया करती है। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा होती है पुत्र के विवाद - सुख देखनेकी । पुत्र- वधूके प्रसन्न बदनको देखकर वह अपने हृदयकी संपूर्ण इच्छाएं सफल कर लेना चाहती है इतनेही से उसके हृदयकी साध पूर्ण हो जाती है । नेमिकुमार अब यौवन-संपन्न थे । उनका सारा शरीर यौवन के बेगसे भर गया था | उद्दाम यौवनका साम्राज्य पाकर भी काम विकार उनके बालक के समान साल हृदयमें प्रवेश नहीं कर सका था । उनका हृदय गंगाजल की तरह निष्कलंक और वासना रहित था । माता शिवादेवी पुत्रके हृदयको जानती थी, लेकिन पुत्र - वधू पाने की कोमक अभिलाषाका ने त्याग नहीं कर सकती थीं । पुत्र परिणय से होनेवाले आनंदा लोभ उनके हृदयमें था । लेकिन वे अनेक प्रयत्न करने पर भी उनके हृदयमें विवाह की अभिलाषा जागृत नहीं कर सकी थी । लेकिन उनके हृदयकी उत्कट इच्छा अभी मरी नहीं थी, वे प्रयत्नमें थीं । उन्होंने अपने इस प्रयत्न में श्रीकृष्णजीको भी सम्मिलित करना चाहा । दयासागर नेमिनाथ । HUI/IM!://MI उस दिन मध्याह्नका समय था जब माता शिवादेवीने विवाह मंत्रणा के लिए श्री कृष्णजीको अपने राज्यमहकमें बुलाया। उन्हें योग् शासन पर बिठलाकर स्नेहभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखा, फि! उनके
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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