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________________ १२०] जन युग-निर्माता। हर्षसे फूल न्ठा कपोलों पर गाली दौड़ गई. विशाल वक्षस्थल तन गया। बालाने उसके प्रभावशाली मुखमंडल पर एकवार अपनी विशाल दृष्ट आरोपित कर दी, फिर लज्जासे संकुचित हुए अंगोको समेटकर उसने अपनी बाहुओंको कुछ ऊपर उठाया, और हृदयकी धड़कनको रोकते हुए अपने सुकुमार काकी पुष्पमाला व्यक्तिके गलेमें डाल दी। कार्य समाप्त होचुका था, अयोध्या नरेश दशरथ विजयी हुए। स्वयंवर मंडपम कुमरी के कईने उनके गलेमें वरमाला डालती थी । वरमाला डालकर अपने संकुचित और लज्जाशील शरीरको लेकर वह झुकी हुई कल्पलताकी तरह कुछ सणको वहां खड़ी ही, फिर मंदगतिसे चलकर वह विवाह वेदिकाके समीप बैठ गई। केईका चुनाव योग्य था । उसने श्रेष्ठ पुरुषको अपना पति स्वीकार किया था, सुहृद और कुटुम्बी जन इस संबंधसे प्रसन्न थे, लेकिन स्वयंवर मंडपमें पराजित नरेशोंको यह सब असह्य हो उठा । वे अपनेको अपमानित समझने लगे और अपने अपमान का बदला युद्ध द्वारा चुकानेको तैयार हो गए। राजा दशरथ इसके लिए तैयार थे, उन्होंने अपने स्थका संचालन किया, केकईको उसमें विठलाया और राजाओंसे युद्ध के लिए अपने रथको आगे बढ़ा दिया । नरेशोंने एक साथ मिलकर उनके ऊपर धावा बोल दिया। दशरथ युद्ध क्रिया-कुशल थे, लेकिन उन्हें युद्ध और रथ संचालन दोनों कार्य एक साथ करना पड़ रहे थे, एक क्षणके लिए उन्हें इस कार्यमें कुछ कठिनाई हुई और उनका स्व भागे बढ़नेसे रुक गया। शत्रुन
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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