SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६] जैन युग-निर्माता। सौगा और साधु दीक्षा ग्रहण की। अयोध्याका सौन्दर्य चक्रवर्ति सनकुमारके विना मा शून्य सा हो गया था। सम्राट् सनत्कुमार, नहीं महात्मा सनत्कुमार-योगीश्वर सनत्कुमार, अब योगसाधनामें तन्मय थे। तपश्चरणमें निन्त थे। उन्होंने इस जन्मके सांसारिक बंधनोंको तोड़ डाला था, लेकिन पूर्वजन्मके संस्कारोको वह नहीं तोड़ पाए थे, वे अभी जीवित थे। पूर्वकर्म फल पाना अभी शेष था, यह प्रक्टमें आया, उन्हें कोद हो गया। उनका वह मुन्दर और दर्शनीय शरीर कोड़की कठिन व्याधिसे आज ग्रसित था, सारे शरीरसे मलिन मल और रक्त निकल रहा था। तीव्र दुर्गधिके कारण किसीको उनके निकट जाने का साहम नहीं होता था, लेकिन इसका उन्हें कोई खेद नहीं था, कोई ग्लानि नहीं थे। वे शरीरकी अपवित्रताको जायते थे, वे निर्ममत्व थे, शरीरकी बाधा हें आत्मध्यानसे विलग नहीं कर सकी थी। उनकी आत्मतन्मयता पर उसका कोई प्रभाव नहीं था, वे पूर्वकी तरह स्थिर थे। देवताओं को उनकी इस निर्ममत्वता पर आश्चर्य हुआ । उन्होंने जानना चाहा, सनत्कुमारका यह निर्ममत्व बनावटी तो नहीं है, वह जो कुछ बाहरसे दिखला रहे हैं वह उनके अंदर भी है अथवा नहीं, उन्हें पर क्षण की कसौटी पर कसना चाहा । "हम वैद्य है, व्याधि कैसी ही भयानक क्यों न हो भले ही बह कोड़ ही क्यों न हो हम उसे निश्चयसे नष्ट करनेकी शक्ति रखते
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy