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________________ ९६ ) जैन युग-निर्माता । हुए मृत्यु प्राप्त होने का समाचार सुनाया । प्रिय पुत्रोंकी मृत्यु सुनार सगराज मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। जब नह चैतन्य हुए तब उन्होंने देखा कि साम्हने वृद्ध खडा हुआ है। वह कह रहा है-सम्राट् ! उपदेश देना साल है लेकिन उसका पालन करना कठिन है। दूसरोंको पथ बतला देना कुछ कठिन नहीं परन्तु उसपर स्वयं चलना टेडी खीर है। आप मुझे तो उपदेश दे रहे थे भात्म कल्याण करनेका लेकिन आप खुद पुत्र वियोगकी बात सुनते ही बेहोश होगए । वृद्धके इस व्यंगका सम्राट के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके मनसे मोहका बोझ उता गया। वे सोरम लंग-हाम्तवमें वृद्धका कथन सत्य है। सांसारिक मोह मडाबलवान है, मेरे ऊपर भी इस मोहका प्रचल चक्र चल रहा है, और मैं उसीमें सक्कर लगा रहा हूं। माज मे । माइ नशा भंग होगया। फिर वे वृद्ध में बाले–वृद्धमहोदय ! सम्राट् जो कहते हैं उसे करते हैं। बेशक मोहने मुझे बेहोश बना दिया था, लेकिन अब मैं स्वस्थ हूं। मैंने आत्मकल्याण और लोक सेवाके पथ पर चलना निश्चित कर लिया है, चलिए आप भी मेरे इस पथके पथिक बनिए। सम्राट्के शब्दोंसे वृद्ध चौक पड़ा, वह उठा और बोला-स्म्राट : भाज आप उस पथपर आए हैं, जिसपर कुछ समय पूर्व में आपको लाना चाहता था । आप मुझे नहीं पहचानते, मैं आपका पूर्वजन्मका साथी वही मणिकेतु हूं। मैंने आपको लोककल्याणके मार्ग पर लाने के लिए ही यह सब कार्य किया है। मैंने ही खाई खोदते हुए आपके पुत्रोंको बेहोश कर दिया था, और मैं ही वृद्धका रूप रखकर यहां
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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