SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ waonwww w w wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwers ९४] जैन युग-निर्माता । अब नहीं जगेगा । इसके प्राणों को यमराज छीन ले गया है. वह बड़ा दुष्ट है वह किसी को कुछ नहीं, सुनता उसके हृदयमें किसी के लिए करुणा नहीं है। अब तुम इसके जगाने का उपाय मत करो, यह मृतक होगया है। जब मैंने यह सुना तब मेरे हृदयको बढ़ा शोक हुआ और अब मैं आपके पास आया हूं। आप उस दुष्ट यमराजसे मेरे प्रिय पुत्रके पाणों को लौटया दीजिए। मैं आपकी शरण हूं आप मेरी रक्षा कीजिए। वृद्धकी बात सुनकर सम्र ट्रको उसके भोलेपन पर बड़ा तरस भाया वे उसकी सालतासे बहुत प्रभावित हुए और उसे समझाते हुए बोलेहे वृद्ध महोदय ! आप बड़े ही साल हैं, आप यह नहीं जानते कि मृत्युके द्वारा छीने गए मनुष्यको बचाने की किसी में ताकात नहीं है, महोदय ! मृत्यु तो यह नहीं देखती कि वह जवान है, अथवा किसीका इकलौता पुत्र है। उसकी आज्ञा संसारी मनुष्य पर अखंड रूपसे चलती है। च हे सम्रट हो अथवा दीन भिखारी, समय मानेपर वह किसीको नहीं छोड़ना । तुम्हारे पुत्रकी आयु समाप्त होगई है, वह मृतक होगया है। मृतकको जिलानेकी ताकत किसी में नहीं है, इस लिए अब तुम्हें उसके प्राणोंका मोह त्याग कर शांतिकी शरण लेना चाहिए। सम्र के वचनोंसे वृद्धको शांति नहीं मिली। वह बोलासम्राट् ! मेरे हृदयको पुत्र प्राप्तिके विना शांति नहीं। मेरा हृदय पुत्र वियोगको सहन करने के लिए किसी तरह भी समर्थ नहीं है। पुषके मिलने की इच्छासे में नापके पास भाया था, उपदेश पुननेके
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy