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________________ दानवीर श्रेयांसकुमार। शरीरको दूसरोंके उपकारके लिए वे स्थिर रखना चाहते हैं और मात्मध्यानके लिए जीवित रहते हैं। इसके लिए किसी को न सताकर भोजन लेते है । वह भोजन भी ऐसा हो जो खास तौरसे उनके लिए न बनाया गया हो, क्योंकि वे अपने लिए किसी गृहस्थको आरंभमें नहीं सलना चाहते । इसलिए हरएक गृहस्थका कर्तव्य है कि वह उन्हें भोजन दे। इसके सिवाय आगे ऐसा भी समय आयेगा जब कुछ मनुष्य भपने लिए पग भोजन उपार्जन न कर सकेंगे, और वे भोजनकी इच्छासे किसी के पास ज येंगे। तब आपका कर्तव्य होगा कि माप उन भूखे पुरुषोंको चाहे में कोई भी हो भोजन दान दें। मागे चलकर अब कर्म-क्षेत्रका विस्तार होगा उसमें आपको दूपरोंकी सहायताका भार लेना पड़ेगा। कुछ व्यक्ति ऐसे होंगे जिनके पास भोजनकी कमी हो अथवा जो अपने बालकोंके लिए योग्य शिक्षाका प्रबंध न कर सकें, रोग पीड़ित होनेपर वे अपने उपचारों में असमर्थ हो, और बलवान पुरुषों द्वारा सताए जानेपा अपने जीवनकी रक्षा न कर सकें। ऐसे पुरुषोंकी सहायता भी आप लोगों को करना होगी। इस सहायताके ना विभाग हो, जिन्हें चार दानके नामसे कहा गयगा । एक विभाग भोजन दानका होगा, दूसरा विद्यादान, तोपग भौषधिदान और चौथा अभय दान । दान देकर अपने मापको बड़ा नहीं समझना होगा । दानको केवल मानव कर्तव्य ही मानना पड़ेगा। अपनी शक्तिके माफिक थोड़ी जग मधिक जितनी सहायता हम देसकें उससे जी नहीं चुराना
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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