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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwNWAawn चक्रवर्ति भरत । [४१ है तब उसके चारों ओर हर्षका साम्राज्य विस्वर जाता है। सफलता और यश उसके चरणोंपा अपने आप लौटने लगता है। मात्र भरतका सौभाग्य सूर्य मध्य ह पर था, पमयने उन्हें चारों ओरसे हर्ष डी हर्ष प्रदान किया थ! । दोनों शुभ संवाद उनके हृदयको हर्षसे भर हे थे इसी समय सभी ऋतुओंके फल फूलोंकी डाली सजाए हुए और सममयम ही वसंतकी सूचना देनेवाले वनमालीने राज्य सभामें प्रवेश किया। पृथ्वोतक मस्तकको झुकाकर उमने सम्राटको प्रणाम किया फिर सुगंधिसे भरे पुष्प और फूलोको उन्हें भंट दिया। आजके पुरमें कुछ अनूटी ही गंधि थी । उनकी शोभा भी विचित्र थी। भरतजीने इम चमत्कारको देखा, वे बोले-शुभे ! आज मैं इन फल फूलों के रूप और गंध कैसा परिवर्तन देख रहा हूं? क्या मेरे नेत्र मुझे धोखा देहे हैं ? बालो इसका क्या कारण है ? वनमाली बोला-नाथ ! मैं उपवनमें घूम रहा था, सारे उपवनको मैंने भाज एक नई शोमामे ही सजा देखा। मैंने देखा जिस भाभ्रकी डालिये शुष्क हो रही थीं वे नवीन मंजरियोंसे प्रजकर झुक गई हैं, मधुपों का गान होरहा है और सभी ऋतुओंके फल फूलोंसे बनश्री वसंतकी शोभा प्रदर्शित कर रही है । नब मैं और मागे वनमें पहुंचा तो देखा कि मृगका पचा सिंह शावकके साथ खेल रहा है और शांतिका साम्राज्य सारे जंगल में फैला हुआ है। मैं यह सब देख ही रहा था कि इसी समय मुझे भाकाशसे कुछ विमान माते दिखलाई दिए मैंने । भागे बहकर सुना कुछ मधुर-कंठ भगवान ऋषभदेवका जयगान कर रहे है, उस ध्वनिमें मुझे स्पष्ट सुनाई पड़ा, कई कहता था मागे
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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