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________________ amonommmmmmmmmmmmmmmmom कर्मयोगी श्री ऋषभदेव । [९ विदेह क्षेत्रके कुलपति कच्छ और सुकच्छकी सुंदरी कन्याओंको उन्होंने अपने युगके लिये चुना। दोनों कन्याएं रूपमें और गुणमें पाम श्रेष्ठ थी। न मियने उन दोनों कन्याओंकी कच्छ मौर सुकच्छपे याचना की । उनहोंने इसे माना सौभाग्य समझा और प्रसन्न मनसे स्वं कृति प्रदान की। निश्चित समयपर बड़े समारोह के साथ कुमार ऋषभका पाणिप्राण हुआ। विवाहोत्सवमें अनेक स्थानके कुलपति निमंत्रित हुए थे। नाभिगयने सबका उचित सरकार सम्मान किया । इस विवाहसे भरत और विदे। क्षेत्रके कुलातियों का स्ने सन्धन अत्यन्त सुदृढ़ होगया। सुन्दरी यशम्बती और सुनन्दाके साथ युवक ऋषभदेव मुखमय जीवन व्यतीत काने लगे। दोनों पनिए उनके हृदयको निरंतर प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती थीं। उनका गृहस्थ जीवन आदर्श रूप था। एक रात्रिको सुंदगे यशस्वतीने मनोमोहक स्मों को देखा। मोको देखकर उनका हृदय अत्यंत प्रसन्न हो उठा । मवेरे ही उन्होंने भग्ने पतिसे स्वप्नों के फरको पूछा। पतिदेवने अत्यंत हर्षके साथ कहा-प्रिये ! तूने जिन सुन्दर स्वप्नोंको देखा है वे यह पार्शित करते हैं कि तेरे गर्म पृथ्वीतलपर अपना अखंड प्रभुत्व स्थापित करनेवाला वीर पुत्र होगा। स्वप्नका फल जानकर देवी यशवतीका हृदयकमल खिक उठा। निश्चित समयपर यशस्वतीने सुन्दा पुत्रालको जन्म दिया। बालक अत्यंत कांतिधान और तेजस्वी था। पौत्र जन्मसं नाभिरायके
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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