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________________ तपस्वी वारिषेण । [ ३३७ क्रूरकी मालाओं से सुशोमिन, पुण्यकी पवित्र यामासे परिपूर्ण काजकुमार बारिषेणकी भव्य मुखमुद्रको उन्होंने दूर से ही देखा उसे देखकर राजा विवसारको अपने द्वारा दी गई अन्यायपूर्ण दंड'ज्ञा पर बहुत ही पच्छा गए हुआ, उनका हृदय पश्चातापके वेगसे भर आया । वह बने पुत्रका दृढ़ आलिंगन कर हृदयके आतापको अश्रुओं द्वारा चहाते हुए बोले- पुत्र ! कोषकी तीव्र भावना में बहकर विचारशून्य टोफर मैंने तेरे लिए जो दंडाज्ञा दी थी उसका मुझे बड़ा खेद है । जैसे सत्यवती और सचरित्र पुत्रके दिए संपूर्ण जनता के समक्ष जो तकरणे व्यवहार किया है उसे मैं अपना महान् अपराध समझता हूँ । आह ! कोके वेगने मुझे बिलकुल अज्ञानी बना दिया था इसकि मैं तेरी पवित्रनापर तनिक भी विचार नहीं किया । पुत्र ! तू किस्कुल निर्दा। है, तू मेरे उम अन्याय ना भविचारपूर्ण कार्यके लिए क्षमा प्रदान कर | वास्तव में तू सच्चा और दृढ़ प्रतिज्ञ है। धार्मिक के इस अपूर्व चमत्कारने तेरी सत्यनिष्ठाको सारे संसार में अखंड रूप से विस्तृत कर दिया है। देवों द्वारा किए आश्चर्यजनक कार्यने तेरी मच्चरित्रता पर अपनी हड़ छाप लगा दी है, तेरी इस अलोकिक दृढ़ना और क्षमता के लिए तुझे मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूं । महाराज के पश्चाताप पूर्ण हृदयसे निकले करुण उद्वारोंसे कुमार वा रषेणका हृदय विनय और प्रेमसे आविर्भूत होगया । कहने लगापिताजी ! आपने मुझे दंड देकर न्यायकी रक्षा और कर्तव्य पालन किया है आपका यह अपराध कैसे कहा जा सकता है? कर्तव्य पालन कभी भी की कोटि में नहीं आ सकता। हां, यदि आप मुझे सदोष २२
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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